पिछले दिनों 7 सितंबर 2025
को एक खगोलीय घटना ‘चंद्र ग्रहण’ हुई थी। इसके कुछ दिनों के बाद आने वाले 21
सितंबर 2025 को एक अन्य खगोलीय घटना ‘सूर्य ग्रहण’ देखने को मिलने वाली है। यह इस
साल का दूसरा सूर्यग्रहण होगा। इससे पूर्व 29 मार्च को आंशिक सूर्यग्रहण देखने को
मिला था। जो भारत में नहीं दिखा था। 21 सितंबर को होने वाला सूर्यग्रहण भी आंशिक
सूर्य ग्रहण ही है, साथ ही यह भी भारत में नहीं दिखेगा। बावजूद इसके हमारे देश के अंधविश्वास फैलाने वाले
बहुत से मीडिया संस्थान इससे होने वाले दुष्प्रभाव से बचने के उपाय बताने के कार्य
में लग गए हैं।
वैज्ञानिक
अध्ययन से जब यह स्पष्ट है कि सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण कोई दैविक नहीं बल्कि एक
खगोलीय घटना है जो किसी भी व्यक्ति के जीवन पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं डालते। इस
दौरान किए गए कार्य ना अशुभ होते हैं, न ही इस दौरान कोई अपवित्र होता है। फिर भी
यह ज्योतिष विज्ञान के जानकार अंधविश्वास फैलाने का कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। हैरत
की बात यह है कि जिन क्षेत्रों में सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण दिखाई पड़ता है, वहाँ ग्रहण
के तथाकथित दुष्प्रभाव से मुक्त होने के कपोल कल्पित उपाय तो बताते ही हैं, इसके
साथ-साथ जिन क्षेत्रों में यह ग्रहण नहीं दिखाई पड़ता है, वहाँ के लोगों को भी इसके
दुष्प्रभाव का डर दिखाकर उन्हें कर्मकांड जैसे फर्जी गतिविधियों में भी घसीटने का काम
करते हैं। भोले भाले लोग भी उनकी बातों में आकर, दुष्प्रभाव के डर को कम करने के
लिए बिल्कुल वैसा ही करने लगते हैं, जैसा यह उन्हें बताते हैं।
यहाँ
सवाल उठता है कि आखिर इस अंधविश्वास को फैलाने के पीछे निहित कारण क्या है? जवाब
है कि यह अंधविश्वास इसलिए फैला रहे हैं क्योंकि इससे उनकी कमाई जुड़ी है। इस
प्रक्रिया का अवलोकन करेंगे तो पता चलता है कि ज्योतिष का कारोबार करने वाले एक
जाति के लोग ग्रहण के दुष्प्रभाव से बचने के लिए अलग अलग प्रकार के कर्मकांड कराने
का निर्देश देते रहते हैं। इस कर्मकांड को कराने में उनकी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
सहभागिता रहती है। उस कर्मकांड को कराने के बदले उन्हें दक्षिणा मिलती है। ग्रहण
के बाद तथाकथित पवित्र नदियों में स्नान करने का निर्देश उनके द्वारा दिया जाता है।
ऐसा इसलिए कि लोग नदियों में स्नान कर आस पास बने मंदिर में जाकर पूजा करेंगे, वहाँ
मंदिरों में दान करेंगे, पुजारियों को दान या दक्षिणा देंगे, जिससे उनकी, उनकी कुटुम्बों
की कमाई हो रही होगी।
ये
लोग 21 वीं सदी में रहकर पांचवीं सदी में जी रहे हैं। ऐसे जीने से उनकी लोगों को
ठगकर आजीविका चलती है, इसलिए वे इस प्रकार की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं करना
चाहते। क्योंकि इससे उनका हित जुड़ा है। लेकिन बाकी लोग तो फोकट में पैसे बर्बाद कर
रहे हैं न उस कर्मकांड के लिए आवश्यक सामग्री को खरीदकर, फर्जी कर्मकांड का मेहनताना देकर। हम तथाकथित पवित्र नदियों में स्नान
करते हैं, वहाँ से जल लेकर नजदीक स्थित देवालयों में जाते हैं, वहाँ उस जल को किसी
देवी देवता पर ऐसे चढ़ाने के लिए नहीं नहीं कहा जाता, उस पात्र में थोड़ा सा चंदन
लगाकर मौजूद जल को किसी मंत्र को पढ़कर संकल्पित करने का ढोंग किया जाता है। उसके
बदले ₹10 ₹20 की मांग की जाती है। कल्पना
कीजिए किसी छोटे से नदी के किनारे स्थित छोटे से मंदिर में यदि 100 लोग ही पूजा
करने जाते हैं, बदले में ₹10 वहाँ के पुजारियों को देते हैं तो
बैठे-बैठे पूरे दिन के वे कितना कमा लिए?
मज़े
की बात यह है कि इस दुनिया में अरबों लोग ऐसे हैं जो इन कर्मकांडों से दूर होकर बिना
इस मोहपाश में फंसे बेहतरीन जीवन जी रहे हैं। कर्मकांड करने वालों की तुलना में
कहीं ज्यादा सुखी संपन्न जीवन व्यतीत कर रहे होते है।
अब
हमें जरूरत है हमारे समाज में सदियों से प्रचलित मिथ्या धारणाओं की पहचान कर, उससे
खुद को अलग करने की। सभी प्रकार के धारणाओं पर, उसकी सत्यता पर, वर्तमान में उसकी
प्रासंगिकता पर विचार करने की।